अपना बना कर न जाने क्यों बहलातें हैं लोग । देकर जख्म न जाने क्यों सहलाते हैं लोग ।। मां जाए हैं सभी लाए शक्ल अपनी उधार में । ला कर हम को क्यों आइना दिखाते हैं लोग ।। पाक ही है दामन तमाम उनका कीचड़ में । इश्तिहार बांट कर रोज क्योँ जताते हैं लोग ।। मजहब है इंसानों का जब इंसानियत ही । तो फिर क्यों इंसानी खून बहाते हैं लोग । कागद तो कोरा था लिखे जज़बात आपने । खुदा का लिखा फरमान क्यों बताते हैं लोग ।
नहा धो कर आ बैठा सूरज मेरे घर छत की मुंडेर करने बात धरा से हो गई प्रभात !
आओ छोड़ें बिस्तर हम भी बैठें बीच चौपाल करें बात की शुरुआत !
करेंगे बात बात बनेगी बिन बात बढ़ेगी बात बढ़ गई बात तो नहीं बचेगी कहीं बात !
बढ़ गई धूप छोड़ें सपने ढूंढ़ें अपने गढ़ें संसार नया नवेला आओ करेँ अपनत्व का सूत्रपात !
तोड़ें कारा भ्रम की करें साधना श्रम की हक मांगें हक से अपना हक से लें हक हक से दें हक जग में बांटें हक-हकीकत की सौगात !
झूठ को मारें सच को तारें कांडवती न हों अपनी सरकारें जन गण मन की पूर्ण हो आस अधूरी छूटें सब मजबूरी अन्याय अंधेरा छूटे तो नया सवेरा फूटे जो थामें हम ये प्रभात !
उतर मुंडेरी घूमों सूरज जग का मेटो सारा तम मैं को तोड़ो रच दो हम अंतस सब के डोलो तुम अबोलों में जा बोलो तुम अमीर गरीब का भेद मिटा कर सब के सिर पर मानवता का फिर से रख दें ताज !
असीम था समय आदि-अनादि काल से अखूट था आदि से अंत तक अवतारों तक सेखर्च तो हुआ ही नहीं सृष्टि से पहले भी था आज मगर नहीं है किसी के पास निमिष भर समय गया कहां आखिर यह अकूत खजाना या फिर मिथ्या हैं घोषणाएं मन के भरमाए कपटी मानवों की !
दूर खेत में जन्मी ढाणी पी-पी पली बारिश का पानी बदहाली में भी पल-पल कर हुई किशोर गांव बन गई अब नक्शे पर आया नाम बिजली-पानी स्कूल-पंचायत पा इतराया गांव कुछ पढा कुछ अनपढ़ रह पाई जवानी आंख मींच कर डाले डलवाए वोट कभी मिला प्यार कभी खाए सोट । इक दिन दबे पांव इतराती आई सड़क भोले भाले गांव का उस से भिड़ गया टांका हुआ गांव मदहोश खो बैठा वो अपने होश छोड़ कर चोला अब गांव अपना शहर हो गया बहता था जो प्रीत का दरिया अब वो ज़हर हो गया गांव मेरा शहर हो गया !
मरुधर द्वारे आया बादल बरस-बरस कर रजस्वला देह पर छोड़ गया अपना अंश मिट गया धरा का अभिशप्त होता दंश अब जनेगी हरियाली खूब फलेंगे हरित तृण-तरु वंश मन मरुधर का आज डोल रहा है तोड़ कर मौन मोर बोल रहा है !
सुना था प्यार एक ऐहसास है कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे फिर कोई दूर है या पास है !
प्यार फैलता है सिमटता नहीं कभी यदि टूटता है तो वो होता ही नहीं प्यार निरा स्वार्थ होता है जो तलाशता है प्यार में अपना वांछित नहीं मिलने पर हो जाता है अलग !
यह नहीं सुना कभी प्यार किया हो और हो गया हो सुना है प्यार करने से नहीं होने से होता है जैसे होता है एक माँ को अपने बच्चे से !
तुम प्यार मत करो करो इंतजार प्यार होने का होना होगा तो हो ही जाएगा एक दिन बिना बताए बिना पूछे !
अपने बचपन की मधुरतम यादें गली-मोहल्ला अपना घर मां बाप का दुलार भाई-बहिनों का प्यार यहां तक कि खुद को भी छोड़ कर अपने गांव में किसी के पीछे बंध कर चली आई थी लड़की अपने स्व का निर्बाध विलय किसी में करने किसी को रचने जो हो ही गया था शहनाई की गूंज के बाद ! यक-ब-यक वही छूट गया जिस में होना था उसका सम्पूर्ण विलय अब घर रह गया था केवल एक अरण्य
जिस में करती है वह एकाकी विचरण !
लड़की सोचती है समाज का बनाया अटूट बंधन टूटने पर अपना सब कुछ त्याग बनाया साथ छूटने पर एकाकी क्यों हो जाती है एक लड़की जिसे ताउम्र रोना होता है पहाड़ जैसा जीवन अकेले ही ढोना होता है । (यह कविता तो नहीं है मगर सत्य पर मचली निज संवेदना जरूर है)
1. क्यों नहीं होती इस बात पर चर्चा सर्वत्र हर युग में स्त्री को ही क्यों देना पड़ता है चरित्र प्रमाण-पत्र ! 2. पति की मृत्यु पर स्त्री से ही क्यों छीने जाते हैं पति के प्रतीक गले से मंगलसूत्र हाथ से कंगन माथे से बिन्दिया मांग से सिन्दूर पत्नी की मृत्यु पर क्यों नहीं छीना जाता पति से कुछ भी ?
3. पति की मृत्यु के बाद स्त्री क्यों नहीं रहती प्यार की अधिकारिणीं क्यों मान लिया जाता है उसका सब कुछ उजडा हुआ जबकि उसका जीवन शेष पडा रहता है अशेष ! 4. नाकाम पुरुष नाकाम पुरुष को क्यों कह देते हैं पहन लो चूडियां इस तरह
बेशर्मी के साथ अपनी कमजोरी को क्यों कर दी जाती है स्त्री के नाम ?
5. सात फेरों के बदले क्यों समर्पित हो पुरुष के समक्ष गेह से देह तक स्त्री का सब कुछ ?