शुक्रवार, मार्च 04, 2011

म्हारी ऐक राजस्थानी कविता















OOO ओ म्हारो गांव है OOO
          ओम पुरोहित " कागद "


ओज्यूं पींपळ री छांव है
मघली-जगली नांव है
बूक हथाळ्यां ठांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


जद दिन बिसूंजै
जगै दीया
चांद रै चानणै
टींगर खेलै दडी़ गेडिया ।
बिजळी रै खम्बां
भैंस बंधै
तारां री बणै तण्यां
बिजळी रो खाली नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


करसां बोवै
साऊ खावै
बापू रै नारां रो
गांव में खाली नांव है
बिजळी कड़कै
ठंड पडै़ करसां खसै खेत में
खातां में ज़मींदार रो नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


अंगूठां री नीं सूकी स्याई
मघली जाई
जगली परणाई
मा गैणां रख रिपिया ल्याई
साऊकार री बै’यां में
म्हारी सगळी पीढी रो नांव है
गांव सगळो पड्यो अडाणै
बैंकां रो खाली नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


क-मानै करज़ो
ख-खेतां खसणो
ग=गरीबी
घ-घरहीण
इस्सी बरखडी़
गांव री चौपाळ है
पांच सूं पच्चीस रा टींगर
खेतां-रो’यां चरावै लरडी़
माठर फ़िरै सै’र में
गांव में स्कूल रो खाली नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


अणखावणां-अणभावणां
बणै नेता बोटां रै ताण
ठग ठाकर है म्हारा
गेडी रै ताण
अडाणै री कहाणी कै
खेत दबाणै री बाणी दै
घेंटी मोस बोट नखावै
जीत परा फ़ेर ढोल बजावै
लोकराज रो खाली नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


अंटी ढील्ली
खेत पाधरो
अंटी काठी
खेत धोरां पर
अळगो-आंतरो
मंतरी री सुपारसां
खेत मिलै सांतरो
खेत-खतोन्यां
हक-हकूकतां
ज़मींदार रै हाथ में
गांव बापडो़ फ़िरै गूंग में
चारूं कूंटां पटवारी रो दांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !








सोमवार, फ़रवरी 28, 2011

*** गांव के दो चित्र ***

*** गांव के दो चित्र ***
       [ दो कविताएं ]











** गांव में **
===========

तीन साल पहले
समाचार-पत्र में
समाचार था ;
गांव में पानी की तंगी
दूर होगी
बनेगी पानी की टंकी ।

अभी दस दिन पहले
समाचार-पत्र में
फ़िर समाचार था ;
पानी की टंकी में रिसाव है
इसे गिराने में ही बचाव है ।

आज फ़िर समाचार है
पानी की टंकी गिरा दी गई
यूं जनता बचा ली गई ।

यह अलग बात है कि
गांव में
किसी ने
समाचार-पत्र आने के सिवाय
कोई घटना
कभी भी नहीं देखी
प्रेस-नोट सरकारी थे
इस लिए विश्वसनीय थे ।


** अकाल में गांव **
================

गांव में
चार साल से अकाल था
फ़ेमिन था
फ़ेमिन में
काम के बदले
अनाज मिलता था
जिस्म के बदले
और जिस्म में
जान नहीं थी
बिरखा के लिए
अलूणे रविवार
निर्जला सोमवार के
व्रतों के कारण ।

गांव की दीवारों पर
नारा था-
पानी बचाओ !
बिजली बचाओ !!
सबको पढा़ओ !!!
यह अलग बात है कि
गांव में
न पानी था
न बिजली थी
न स्कूल था !

गांव में
न धंधा था
न खेती थी
न उद्योग था ।
प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत
शहर से सड़क ज़रूर आ गई थी
जो ले गई
शहर में
आदमी कम
सौदागर बहुत थे
यूं तो शहर में
"काम" बहुत था
और आदमी का
आदमी बने रहना
बहुत मुश्किल था
लौटना पडा़
उसी गांव में
जो अंधी सुरंग से
कभी कम न था !







शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

** मेरी दो हिन्दी कविताएं **

** मेरी दो हिन्दी कविताएं **

=====================
** गलियां **

कुछ गलियां
छोड़नी पड़ती हैं
कुछ आदमियों के कारण
और
कुछ गलियों में
जाना पड़ता है
कुछ आदमियों के कारण ।

गलियां
वहीं रहती हैं
वही रहती हैं
बदलते रहते हैं
आपसी सम्बन्ध
ठीक मौसम की तरह !

** रास्ता **

चलें
ऐसे रास्तों पर
जहां चल सकें
जूते पहन कर ।

अधिक से अधिक
ऐसा रास्ता भी
हो सकता है ठीक
जहां चल सकें
जूती हाथ में थाम कर ।

भला कैसे हो सकता है
वह रास्ता
जहां चलना पडे़
सिर पर उठा कर
अपनी ही जूतियां !








.

शनिवार, फ़रवरी 12, 2011

कुछ हिन्दी कविताएं

सात हिन्दी कविताएं

[1] आग

जब
जंगल में
लगती है आग
तब
केवल घास
या
पेड़ पौधे ही नहीं
जीव-जन्तु भी जलते हैं
अब भी वक्त है
समझ लो
जंगल के सहारे
जीव-जन्तु ही नहीं
आदमी भी पलते हैं ।

[2] याद

यादें ज़िन्दा हैं तो
ज़िन्दा है आदमी
जब जब भी
यादें मरती हैं
मर जाता है आदमी !

भुलाना आसान नहीं ;
षड़यंत्र है
जिसे रचता है
खुद अपना ही ।
भुलाना शरारत है
और
याद रखना है इबादत ।
भुलाना भी
याद रखना है
अपने ही किस्म का ।

कुछ लोग
कर लेते हैं
कभी-कभी
ऐसे भी
जानबूझ कर
भूल जाते हैं
लेकिन नहीं हैं
ऐसे शब्द
मेरे शब्दकोश में ।

[3]  खत

जब खत न हो
गत क्या जानें
गत-विगत सब
खत-ओ-किताबत में
खतावर क्या जानें
नक्श जो
छाया से उभरे
उन से
कोई बतियाए कैसे
बतिया भी ले
उत्तर पाए कैसे ?

बिन दीवारों के
छत रुकती नहीं
फ़िर हवा में मकाम
कोई बनाए कैसे ?

नाम ले कर
पुकार भी ले
वे सुनें क्योंकर
लोहारगरों की बस्ती में
जो बसा करे !

[4] सबब

धूप की तपिश
बारिश का सबब
बारिश की उमस
सृजन की ललक
सृजन की ललक
तुष्टि का सबाब
यानी
हर क्षण
हर पल
विस्तार लेता अदृश्य सबब !

सबब है कोई
हमारे बीच भी
जो संवाद का
हर बार बनता है सेतु ।
मेरी समझ से
कत्तई बाहर है
कि मैं किसे तलाशूं
संज्ञाओं को
विशेष्णों को
कर्त्ताओं को
या फ़िर
संवाद के सबब
किन्हीं तन्तुओं को
या कि सबब को ही !

[5]  कब

कलि खिलती है तो
फ़ूल बन जाती है
फ़ूल खिलते हैं तो
भंवरे गुनगुनाते हैं

धूप खिलती है तो
चेहरे तमतमाते हैं
चेहरे खिलते हैं तो
सब मुस्कुराते हैं
यूं सब मुस्कुराते हैं तो
सब खिलखिलाते हैं \

यहां जमाना हो गया
कब खिलखिलाते हैं ?

[6]  चेहरा मत छुपाइए

हर आहत को
मिले राहत
ऐसा कदम उठाइए
खुशियां हों
हर मंजिल
ऐसी मंजिल चाहिए ।

हो कठिन
अगर डगर
खुद बढ़ कर
कंवल पुष्प खिलाइए ।

चेहरे पढ़ कर भी
मिल जाती है राहत
खुदा के वास्ते
चेहरा मत छुपाइए !

[ 7] मन निर्मल

न जगें
न सोएं
बस
आपके कांधे पर
सिर रख कर
आ रोएं !

पहलू में आपके
सोना
रोना
थाम ले मन
बह ले
अविरल
दिल का दर्द
आंख से
आंसू बन कर ।
हो ले मन निर्मल
औस धुले
तरू पल्लव सरीखा ।

कितना ज़रूरी है
तलाशूं पहले तुम्हें
तुम जो अभी
अनाम-अज्ञात
हो लेकिन
कहीं न कहीं
बस मेरे लिए
मेरी ही प्रतिक्षा में !

यही प्रतिक्षा
जगाती है हमें
देर रात तक
शायद हो जाएगी
खत्म कभी तो
कहता है
सपनों में
हर रात कोई !








रविवार, फ़रवरी 06, 2011

गज़ल















क्या पढे़गा भला कोई \

आंखों से एक सपना खो कर आया हूं ।
अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥

कांधे पर मेरे हाथ मत रख ऐ रकीब ।
यह लाश बडी़ दूर से ढो कर लाया हूं


न मांग मुझ से मेरी तन्हाईयां इस कदर।
मैं इन्हें अपना सब कुछ खो कर लायाहूं॥


क्या पढे़गा भला कोई इतिहास अब मेरा ।
मैं वो पृष्ठ स्याही में डुबो कर आया हूं ॥


न रुला अब किसी और अंजाम के लिए ।
अपने जनाज़े पर बहुत रो कर आया हूं ॥


निरी प्यास है इन में न कर तलाश पानी ।
मैं इन आंखों में अभी हो कर आया हूं ॥









गज़ल






शुक्रवार, जनवरी 28, 2011

ओम पुरोहित ‘कागद’


 मेरे हिन्दी कविता-संग्रह

म्हारा राजस्थानी कविता-संग्रह
              कुचरणी
राजस्थानी कविता-संग्रहों से 
हिंदी मे अनूदित कविताएँ
अन्य हिंदी कविताएँ
राजस्थानी कविताओं का हिंदी अनुवाद
मूल राजस्थानी कविताएँ

शनिवार, जनवरी 22, 2011

ओम पुरोहित"कागद" चार हिन्दी कविताएं

चार हिन्दी कविताएं


* द्वंद्व *

जब तलक
वर्ण छितरे रहे
न बटोर सके
मूरत अमूरत संवेदनाएं !

जब से लगे हैँ बनाने
अपने अपने समूह
उतर आए उनमेँ
दृश्य-अदृश्य-सदृश्य
आकार-निराकार
उभरने-झलकने लगे
सुख-दुख-मनोरथ
आकांक्षाएं-लालसाएं
द्वंद्व-युद्द
अकारण सकारण सकल !


समवेतालाप
और एकालाप के
वशीभूत हो
मुखरित होने के
अपने संकट हैँ
रोना ही तो है यह
सब के बीच अकेले मेँ !

* सम्बन्ध *

टूट कर
अलग हो जाए पत्ता
मगर
एहसास रहता है
शेष शाख पर
सम्बन्धोँ के
अतीत होने का !


थे जो कभी
साकार मुखर
आज निराकार
धार असीम मौन
स्मृतियोँ मेँ
फिर फिर से
लेते हैँ आकार
बतियाऊं कैसे
स्मृतियोँ के एहसास से !


सम्बन्ध नि:शब्द जन्मे
नि:शब्द रहे
नि:शब्द ही
कर गए प्रयाण
अर्थाऊं कैसे
असीम मौन औढ़ कर !


* फासले *

कदम हम चार चले
सामने तुम्हारे
तुम भी चले
कदम चार
मगर
अपने ही पीछे !
यूं न कभी
अंत हुआ सफर का
न फासले ही कम हुए !


आहटोँ पर
कान लगाए
चलते रहे
चलते रहे
न बतियाए
किसी पल
सफर के बीच
पड़ाव तलक
न आया जो कभी !


बस
परस्पर मुस्कुराहटेँ
ढोती रहीँ
अनाम सम्बन्धोँ को
हमारे बीच
अनवरत !

* काण *

रात भर
बात बेबात
जागने वालोँ को
क्या और क्योँ
अलग से विशेषण दूं
दोस्त कह दूं तो भी
तराजू के पलड़ोँ मेँ
काण तो दिख ही जाएगी !

तुम कहो तो
तुम्हेँ "मैँ" कह दूं !

शुक्रवार, दिसंबर 24, 2010

ओम पुरोहित कागद की चार हिन्दी कविताएं

चार हिन्दी कविताएं


(1)
कल्पना


आसमान में उड़ना
चाहत है मेरी
ऊंचाईयां छूना
कल्पना है मेरी।


ए खुदा
वो कदम दे
जिन से चल कर
वहां तक पहूंच सकूं
जहां से शुरु होती है
आसमान की ऊंचाईयां।

 
(2)
ये हवा चुराती


हरी-हरी टहनी
हरे-हरे पत्ते
उन पर खिला गुलाब
फ़िर सोचूं-
मैं टहनी
तुम गुलाब
तुम खुशबू
मैं ध्राण।


ये हवा चुराती
तुम को मुझ से
फ़िर लौटाती
महकाती जगती।

 
ये हवा खेलती
अपने बीच
महक चुराती-बांटती
किस के संग जाएगी
किस के पासंग गाएगी।


फ़िर सोचूं-
तुम हवा
जो नहीं ठहरी
मेरी देहरी
महकी जितनी।

 
(3)
आप


आपका भोलापन
किसी बच्चे के हाथों
फिसली
मासूम तितली
फ़िर फ़ंसी जैसा।


तुम्हारा अपनापन
पहाडों में गूंजती
जैसे अपनी ही आवाज।


तुम्हारे बोल
जैसे आतुर की नमाज
खुदा क्यों न सुने आज।


(4)
यात्रा फ़ूल की


कभी पूजा में
कभी ठोकरों में
खत्म नहीं होती
यात्रा फ़ूल की।


कभी घास पर
कभी आसमान में
रुकती नहीं
यात्रा धूल की।


फ़ूल में
घूल रमती
फूल भी रमेगा धूल में
तब होगी शायद खत्‍म
यह यात्रा असीम
क्या तब हो जाएगी खत्‍म
यात्रा धूल ओर फूल की?

बुधवार, नवंबर 24, 2010

ओम पुरोहित "कागद" की दो हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित "कागद" की
दो हिन्दी कविताएं


             1.
याद आता है बचपन

आज भी
याद आता है बचपन;
वो दौड़ कर तितली पकड़ना
आक के पत्ते झाड़ना
पोखर में नहाना
और फिर
धूल में रपटना
मां की डांट खा कर
नल पर नहाना।


कभी-कभी
मां के संग
मंदिर जाना
खील-बताशे खाना
स्कूल न जाने के लिए
पेट दर्द का
बहाना बनाना
फिर मां का दिया
चूर्ण चटखाना
होम वर्क की कॉपी
छुपाना-जलाना
कुल्फी से
होंठ रंगना।


बिल्ली जैसा
म्याऊं करना
कभी रोना मचलना
कभी रूठना मनना
मन करता है
बचपन फिर आए
मां लोरियां सुनाए
न दु:ख हो
न दर्द हो
हर भय की दवा
मां बन जाए
मैं लम्बी तान कर
सोऊं दोपहर तलक
मां जगाए-खिलाए
मैं खा कर सो जाऊं
न दफ्‍तर की चिंता
न अफसर का डर हो
बस लौट आए
वही बचपन
वही मां की गोद।


              2.
फिर वैसी ही चले बयार


फिर वैसी ही
चले बयार
जिसके पासंग में
पुहुप बिखरे महक
महक में बेसुध
गुंजार करते भंवरे
पुहुप तक आएं।


फिर हो
वैसी ही अमां की रात
जिस में ढूंढ लें
जुगनू वृंद
नीड़ अपना
फिर हो
वैसी ही निशा
निशाकर की गोद में
सोई निशंक
जिसकी साख भरता
खग वृंद
छोड़ अपना नीड़
बतियाएं दो पल
मुक्‍त गगन तले।


फिर हो
चंदा और चकौरी में
उद्दात वार्तालाप
जिसे सुन सके
ये तीसरी दुनिया
फिर हो वैसी ही
स्नेह की बरखा
जिस के जल में
भीग जाए
यह सकल जगती।

बुधवार, नवंबर 03, 2010

ओम पुरोहित “कागद" की चार हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित “कागद" की
चार हिन्दी कविताएं


(1)
कल्पना

मैं कल्पना
बहुत कम लोग
दे पाते
आकार मुझे
मैं अनघड़
पत्थर सी
कष्‍टियाते हवा-पानी के
तीव्र वेग से पाती
घुमड़ीले आकार
किसी को भाते
किसी को सुहाते
कुछ करते स्पर्श
कुछ रोंद कर
गुजर जाते
लेकिन
ले जाते
मस्तिष्क की डोली में
अपने साथ

(2)
हवा

हवा पास से
निकल जाए
गुनगुनाती
महक चुराती
पुहुप का दामन
कुंवारा कब रह पाता
दौड़ता क्षण
फिर थम जाता
हवा का पता उसे
कौन बताता


(3)
आस

हम ने जो पेड़ लगाया था
धरा पर
वो बाते करता है
हवा से
हवा जो निकल जाती है
छू कर
घर हमारा
पूछती है पता तुम्हारा
फिर न जाने
क्या पा कर
छुप जाती हैं
दौड़ कर
उसी पेड़ के पत्तों में
हमारी आस
फिर कुंवारी रह जाती है।

(4)
मौन

तुम पेड़ को
अपनी नज़र से देखो
यह अधिकार
तुम्हारा अपना
पेड़ को झाड़ कहो
शायद यह अधिकार
तुम्हारा अपना नहीं।


तुम सुरज को सुरज
न कह सको तो
शायद मौन रह कर
बेहत्तर उत्तर हो
ढूढ़ सकते हो
जैसे एक कर
मौन रह कर
जान जाती है
कायनात की सारी हकीकत।

गुरुवार, अक्टूबर 21, 2010

ओम पुरोहित कागद की हिन्दी कविता

ओम पुरोहित कागद की हिन्दी कविता

मेरा संघर्ष

मैं
पिछले साठ साल से
चिल्ला रहा हूं
मैं भूखा हूं
मेरे पास
तन ढकने को कपडा़
और
सिर छुपाने को
छत नही हैं।

वो
कहते आ रहे हैं
तुम आजाद देश के
आजाद नागरिक हो
मांग के साथ साथ
संघर्ष करो
यह तुम्हारा
मूल अधिकार है
तुम्हारी मांग
संसद तक पहुंचे
इस के लिए तुम
हमारे झंडे के नीचे आओ!


मैं
जब जब भी
संघर्ष के लिए
तैयार होता हूं
मेरे इर्द गिर्द
लाल
हरे
नीले
भगवां
सफेद
दुरंगे-तिरंगे-बहुरंगे
झंडे लिए
गिरगिट आ खडे़ होते हैं
मुझे बुलाते हैं
हाथों से झाला दे
मुझे रिझाते हैं
अपने मत की हाला दे।


मेरे साथ
दुविधा रहती है
किस की सुनूं
किसका थामूं झंडा
लाल को थामूं तो
मेरा आंदोलन
हिंसक हो जाता है
लाल को छोडूं तो
मेरा आंदोलन
आंदोलन नही
पूंजीवाद का विलाप
और
भगवां थामते ही
साम्प्रदायिक हो जाता है।
अलग-अलग रंगो के
दुरंगे-तिरंगे-बहुरंगे झंडों में
वो बात नहीं
या उनकी औकात नहीं
जो मेरे आंदोलन को
आंदोलन बना सकें।
कुछ झंडे मुझे भीड़ समझते है
कुछ केवल वोट मानते है
किसी को भाषा चहिए
किसी को प्रांत
किसी को जिला चाहिए
किसी क तहसील
किसी को भी नहीं चाहिए
मेरी मांगो की तफसील।


कुछ झंडे फोन से
कुछ झंडे लोन से
कुछ थानेदारी टोन से
कुछ जुलूस और मौन से
मेरी मांग को
मांग बना सकते हैं
लेकिन शर्त मे उनकी
अपनी मांग रहती है।


अपना संघर्ष
खुद करने की सोचता हूं तो
राष्‍ट्र की मुख्य धारा से
कट जाता हूं
बस इसी भय से
पीछे हट जाता हूं।


इस सब के बीच
मैं सोचता हूं;
इस देश में रोटी
डंडे के बिना
नहीं मिल सकती
यदि मेरा डंडा मजबूत है
तो हर कोई
मेरे डंडे में
अपना झंडा टांग देगा
और
अपनी पूरी ताकत से
मेरे लिए
रोटी मांग देगा।