रविवार, मार्च 30, 2014
शनिवार, मार्च 29, 2014
मेरे मन में डर
मन में उपजा
आता है बाहर
पा कर अवसर
हो जाते हैं घोषित
वे शब्द अपराधी
जो लाते हैं ढो कर
मनगत को बाहर ।
मन से मुक्त हो कर
मनगत देने लगती है
वांछनाओं को आकार
इन आकारों के आगे
फिर मर जाते हैं
न जाने कितने मन ।
कुछ कहे
उसका मन नहीं था
मैंने रख लिया
बिना सवाल किए
आज उसका मन
मेरा तो मन
मर ही गया था
मौन रह कर
आती कैसे
मनगत बाहर ।
उसका मन
होने को अभिव्यक्त
बटोर रहा है
उपयुक्त शब्द
मेरे मन में डर है ;
कहीं वे गालियां न हों !
आता है बाहर
पा कर अवसर
हो जाते हैं घोषित
वे शब्द अपराधी
जो लाते हैं ढो कर
मनगत को बाहर ।
मन से मुक्त हो कर
मनगत देने लगती है
वांछनाओं को आकार
इन आकारों के आगे
फिर मर जाते हैं
न जाने कितने मन ।
कुछ कहे
उसका मन नहीं था
मैंने रख लिया
बिना सवाल किए
आज उसका मन
मेरा तो मन
मर ही गया था
मौन रह कर
आती कैसे
मनगत बाहर ।
उसका मन
होने को अभिव्यक्त
बटोर रहा है
उपयुक्त शब्द
मेरे मन में डर है ;
कहीं वे गालियां न हों !
दिन में नहीं शुभ-अशुभ
एक ने कहा
नहीं होता शुभ
कोई भी दिन
हर दिन
कुछ न कुछ
घटा होता है
कुछ न कुछ बुरा
मृत्यु भी तो
मिली होती है
किसी न किसी को
हर दिन !
दूसरे ने कहा
नहीं होता अशुभ
कोई भी दिन
हर दिन
कुछ न कुछ
घटा होता है
कुछ न कुछ शुभ
जन्म भी तो
हुआ होता है
किसी न किसी का
हर दिन !
तीसरे ने कहा
सारे के सारे
शुभ-अशुभ घटते हैं
इन्हीं सात दिनों
माह-वर्ष
दशक-सदियों
युग-युगान्तरों में
जो चलते रहते हैं
अपनीं धुन में
अटकता-भटकता तो
महज जीवन है !
मैं
साथ हूं
उस तीसरे आदमी के
जो देख रहा है
शुभ-अशुभ को
अपनी देह में
भटकते हुए
और निकल रहा है
समय उसके पासंग से !
नहीं होता शुभ
कोई भी दिन
हर दिन
कुछ न कुछ
घटा होता है
कुछ न कुछ बुरा
मृत्यु भी तो
मिली होती है
किसी न किसी को
हर दिन !
दूसरे ने कहा
नहीं होता अशुभ
कोई भी दिन
हर दिन
कुछ न कुछ
घटा होता है
कुछ न कुछ शुभ
जन्म भी तो
हुआ होता है
किसी न किसी का
हर दिन !
तीसरे ने कहा
सारे के सारे
शुभ-अशुभ घटते हैं
इन्हीं सात दिनों
माह-वर्ष
दशक-सदियों
युग-युगान्तरों में
जो चलते रहते हैं
अपनीं धुन में
अटकता-भटकता तो
महज जीवन है !
मैं
साथ हूं
उस तीसरे आदमी के
जो देख रहा है
शुभ-अशुभ को
अपनी देह में
भटकते हुए
और निकल रहा है
समय उसके पासंग से !
सड़क पर लड़कियां
छोड़ पगडंडियां
जब से आई हैं
सड़क पर लड़कियां
तब से गुमसुम हैं
ठहर गए हैं
गांव और ढाणीं
बहक बहक गए हैं
शहर के गली मोहल्ले !
पगडंडियों से उतर
सड़क पर चढ़ी
चौके तक पढ़ीं
हर रोज विज्ञापनों में
दिख रही हैं लड़कियां
जिन चीजों को
बनाया-पकाया
या देखा नहीं कभी
उनकी छवि के साथ
वही अनजानी चीजें
खूब बिक रही हैं ।
शहर की लड़कियां
पूछती हैं उन से
गेहूं का पेड़
कितना बड़ा होता है
लाल मिर्च की बेल
कितनी लम्बी होती है
गांव में कहां से आते हैं
हारा-मटका और तंदूर
शहर से गांव
क्यों होते हैं दूर
गांव की लड़कियां
हंस कर टाल देती है
सवालों के उत्तर
मानो बचा लेती हैं
अपने गांव को
अपने भीतर ।
शहर की लड़कियां
हंसती हैं उन पर
अज्ञानी समझ
देती हैं सलाह
कुछ पढ़-लिख कर
एग्रीकल्चर में
एम.एस.सी. कर लो
सब जान जाओगी !
गांव की लड़कियों के
मस्तिष्क में सुरक्षित हैं
आज भी पगडंडियां
जिनके सहारे पहुंच कर
अपने भीतर
जी लेती हैं अपना गांव
कोई भी पगडंडी
नहीं जाती
शहर से गांव तक
इस लिए
शहर की लड़कियों के
मस्तिष्क में कहीं भी
नहीं होता गांव !
जब से आई हैं
सड़क पर लड़कियां
तब से गुमसुम हैं
ठहर गए हैं
गांव और ढाणीं
बहक बहक गए हैं
शहर के गली मोहल्ले !
पगडंडियों से उतर
सड़क पर चढ़ी
चौके तक पढ़ीं
हर रोज विज्ञापनों में
दिख रही हैं लड़कियां
जिन चीजों को
बनाया-पकाया
या देखा नहीं कभी
उनकी छवि के साथ
वही अनजानी चीजें
खूब बिक रही हैं ।
शहर की लड़कियां
पूछती हैं उन से
गेहूं का पेड़
कितना बड़ा होता है
लाल मिर्च की बेल
कितनी लम्बी होती है
गांव में कहां से आते हैं
हारा-मटका और तंदूर
शहर से गांव
क्यों होते हैं दूर
गांव की लड़कियां
हंस कर टाल देती है
सवालों के उत्तर
मानो बचा लेती हैं
अपने गांव को
अपने भीतर ।
शहर की लड़कियां
हंसती हैं उन पर
अज्ञानी समझ
देती हैं सलाह
कुछ पढ़-लिख कर
एग्रीकल्चर में
एम.एस.सी. कर लो
सब जान जाओगी !
गांव की लड़कियों के
मस्तिष्क में सुरक्षित हैं
आज भी पगडंडियां
जिनके सहारे पहुंच कर
अपने भीतर
जी लेती हैं अपना गांव
कोई भी पगडंडी
नहीं जाती
शहर से गांव तक
इस लिए
शहर की लड़कियों के
मस्तिष्क में कहीं भी
नहीं होता गांव !
बच्चे और बंदूक
अच्छी लगती है
बच्चों को बंदूक
बच्चे चाहते हैं
बंदूक से खेलना ।
बच्चे जानते हैं
सीमा पार भी हैं
हमारे जैसे बच्चों के
बहुत सारे पापा
इस लिए
बच्चों को कभी
नहीं लगता अच्छा
कि कोई और चलाए
धांय-धांय बंदूक
जिस से मर जाए
किसी के पापा जी ।
बच्चे चाहते हैं
खिलौनों में ही रहे
टैंक और बंदूक
जिन्हें वे ही चलाएं
चलाएं तो चलाएं
नहीं तो रूठ कर
तोड़ दें सारी बंदूक !
बच्चों को बंदूक
बच्चे चाहते हैं
बंदूक से खेलना ।
बच्चे जानते हैं
सीमा पार भी हैं
हमारे जैसे बच्चों के
बहुत सारे पापा
इस लिए
बच्चों को कभी
नहीं लगता अच्छा
कि कोई और चलाए
धांय-धांय बंदूक
जिस से मर जाए
किसी के पापा जी ।
बच्चे चाहते हैं
खिलौनों में ही रहे
टैंक और बंदूक
जिन्हें वे ही चलाएं
चलाएं तो चलाएं
नहीं तो रूठ कर
तोड़ दें सारी बंदूक !
पीले दांतों वाली लड़की
लड़की की किताब में
पाठ है पानी का
वह सीखती है ;
पीने का पानी
साफ होना चाहिए
फ्लॉरायडयुक्त पानी से
पीले हो जाते है दांत
पाठ के बाद सवालों में
एक सवाल उसका भी है-
स्वराज के बाद भी
साफ क्यों नहीं है पानी
क्या मर गया है
कर्णधारों का पानी ?
तिरंगा हाथ में लिए
गांव के स्कूल में
इस बात पर
हंसना चाहती है
पीले दांतों वाली
अल्हड़ लड़की
मगर हौंठ भींच कर
छुपा लेती है मुखड़ा
चुन्नी के पल्लू से ।
पाठ है पानी का
वह सीखती है ;
पीने का पानी
साफ होना चाहिए
फ्लॉरायडयुक्त पानी से
पीले हो जाते है दांत
पाठ के बाद सवालों में
एक सवाल उसका भी है-
स्वराज के बाद भी
साफ क्यों नहीं है पानी
क्या मर गया है
कर्णधारों का पानी ?
तिरंगा हाथ में लिए
गांव के स्कूल में
इस बात पर
हंसना चाहती है
पीले दांतों वाली
अल्हड़ लड़की
मगर हौंठ भींच कर
छुपा लेती है मुखड़ा
चुन्नी के पल्लू से ।
https://www.youtube.com/watch?v=TtjJsG48JEs&feature=youtu.be
https://www.youtube.com/watch?v=TtjJsG48JEs&feature=youtu.be
दुनिया में दुनिया
दुनिया जो लगती है
उसे बहुत छोटी
वह दुनिया तो
आज भी उतनी ही है
जितनी थी कभी
लगता है वह आदमी
बहुत बड़ा हो गया
या फिर वह
आकाश में खड़ा हो गया ।
उसे बहुत छोटी
वह दुनिया तो
आज भी उतनी ही है
जितनी थी कभी
लगता है वह आदमी
बहुत बड़ा हो गया
या फिर वह
आकाश में खड़ा हो गया ।
* नारी *
हुआ होगा
जीव का जन्म
पहली बार
जल के किनारे
हरी काई से
पुरुष को तो
किया है पैदा
नारी ने ही
हर बार !
*
जीव का जन्म
पहली बार
जल के किनारे
हरी काई से
पुरुष को तो
किया है पैदा
नारी ने ही
हर बार !
*
सोमवार, जुलाई 29, 2013
*बारिश*
बारिश का बरसना
केवल पानी का गिरना नहीँ
बहुत कुछ बंधा है यहां ।
जैसे कि पेड़-पोधोँ की रंगत
मोर का नृत्य
प्रेमी वृंद के
मिलन की चाह
किसान की उम्मीद
सरकारी योजनाएं
बजट की परवाज !
बारिश सोख भी सकती है
कर्ज मेँ आकंठ डूबे नत्थू
अधबूढ़ी कंवारी बिमली के
कई सावन से टपकते आंसू ।
मरुधर जिन्हे
संजोए बैठी है
बारिश की आस मेँ
अंकुरित हो
कुंठित बीज
बचा सकते हैँ
मिटती लाज मरुधर की
बारिश मेँ
<>कागद तो कोरा था<>
अपना बना कर न जाने क्यों बहलातें हैं लोग ।
देकर जख्म न जाने क्यों सहलाते हैं लोग ।।
मां जाए हैं सभी लाए शक्ल अपनी उधार में ।
ला कर हम को क्यों आइना दिखाते हैं लोग ।।
पाक ही है दामन तमाम उनका कीचड़ में ।
इश्तिहार बांट कर रोज क्योँ जताते हैं लोग ।।
मजहब है इंसानों का जब इंसानियत ही ।
तो फिर क्यों इंसानी खून बहाते हैं लोग ।
कागद तो कोरा था लिखे जज़बात आपने ।
खुदा का लिखा फरमान क्यों बताते हैं लोग ।
आ बैठा सूरज
नहा धो कर
आ बैठा सूरज
मेरे घर
छत की मुंडेर
करने बात
धरा से
हो गई प्रभात !
आओ
छोड़ें बिस्तर
हम भी बैठें
बीच चौपाल
करें बात की शुरुआत !
करेंगे बात
बात बनेगी
बिन बात
बढ़ेगी बात
बढ़ गई बात तो
नहीं बचेगी कहीं बात !
बढ़ गई धूप
छोड़ें सपने
ढूंढ़ें अपने
गढ़ें संसार
नया नवेला
आओ करेँ
अपनत्व का सूत्रपात !
तोड़ें कारा भ्रम की
करें साधना श्रम की
हक मांगें
हक से अपना
हक से लें हक
हक से दें हक
जग में बांटें
हक-हकीकत की सौगात !
झूठ को मारें
सच को तारें
कांडवती न हों
अपनी सरकारें
जन गण मन की
पूर्ण हो आस अधूरी
छूटें सब मजबूरी
अन्याय अंधेरा छूटे तो
नया सवेरा फूटे जो
थामें हम ये प्रभात !
उतर मुंडेरी
घूमों सूरज
जग का मेटो
सारा तम
मैं को तोड़ो
रच दो हम
अंतस सब के
डोलो तुम
अबोलों में जा
बोलो तुम
अमीर गरीब का
भेद मिटा कर
सब के सिर पर
मानवता का
फिर से रख दें ताज !
आ बैठा सूरज
मेरे घर
छत की मुंडेर
करने बात
धरा से
हो गई प्रभात !
आओ
छोड़ें बिस्तर
हम भी बैठें
बीच चौपाल
करें बात की शुरुआत !
करेंगे बात
बात बनेगी
बिन बात
बढ़ेगी बात
बढ़ गई बात तो
नहीं बचेगी कहीं बात !
बढ़ गई धूप
छोड़ें सपने
ढूंढ़ें अपने
गढ़ें संसार
नया नवेला
आओ करेँ
अपनत्व का सूत्रपात !
तोड़ें कारा भ्रम की
करें साधना श्रम की
हक मांगें
हक से अपना
हक से लें हक
हक से दें हक
जग में बांटें
हक-हकीकत की सौगात !
झूठ को मारें
सच को तारें
कांडवती न हों
अपनी सरकारें
जन गण मन की
पूर्ण हो आस अधूरी
छूटें सब मजबूरी
अन्याय अंधेरा छूटे तो
नया सवेरा फूटे जो
थामें हम ये प्रभात !
उतर मुंडेरी
घूमों सूरज
जग का मेटो
सारा तम
मैं को तोड़ो
रच दो हम
अंतस सब के
डोलो तुम
अबोलों में जा
बोलो तुम
अमीर गरीब का
भेद मिटा कर
सब के सिर पर
मानवता का
फिर से रख दें ताज !
*गांव शहर हो गया*

जन्मी ढाणी
पी-पी पली
बारिश का पानी
बदहाली में भी
पल-पल कर
हुई किशोर
गांव बन गई
अब नक्शे पर
आया नाम
बिजली-पानी
स्कूल-पंचायत
पा इतराया गांव
कुछ पढा
कुछ अनपढ़ रह
पाई जवानी
आंख मींच कर
डाले डलवाए वोट
कभी मिला प्यार
कभी खाए सोट ।
इक दिन दबे पांव
इतराती आई सड़क
भोले भाले गांव का
उस से भिड़ गया टांका
हुआ गांव मदहोश
खो बैठा वो अपने होश
छोड़ कर चोला
अब गांव अपना
शहर हो गया
बहता था जो
प्रीत का दरिया
अब वो ज़हर हो गया
गांव मेरा शहर हो गया !
*प्यार फैलता है*

प्यार एक ऐहसास है
कोई फर्क नहीं पड़ता
चाहे फिर कोई
दूर है या पास है !
प्यार फैलता है
सिमटता नहीं कभी
यदि टूटता है तो
वो होता ही नहीं प्यार
निरा स्वार्थ होता है
जो तलाशता है
प्यार में
अपना वांछित
नहीं मिलने पर
हो जाता है अलग !
यह नहीं सुना कभी
प्यार किया हो
और हो गया हो
सुना है
प्यार करने से नहीं
होने से होता है
जैसे होता है
एक माँ को
अपने बच्चे से !
तुम प्यार मत करो
करो इंतजार
प्यार होने का
होना होगा तो
हो ही जाएगा
एक दिन
बिना बताए
बिना पूछे !
*लड़की सोचती है*

मधुरतम यादें
गली-मोहल्ला
अपना घर
मां बाप का दुलार
भाई-बहिनों का प्यार
यहां तक कि खुद को भी
छोड़ कर अपने गांव में
किसी के पीछे बंध कर
चली आई थी लड़की
अपने स्व का
निर्बाध विलय
किसी में करने
किसी को रचने
जो हो ही गया था
शहनाई की गूंज के बाद !
यक-ब-यक
वही छूट गया
जिस में होना था
उसका सम्पूर्ण विलय
अब घर
रह गया था
केवल एक अरण्य
जिस में करती है
वह एकाकी विचरण !
लड़की सोचती है
समाज का बनाया
अटूट बंधन टूटने पर
अपना सब कुछ त्याग
बनाया साथ छूटने पर
एकाकी क्यों हो जाती है
एक लड़की
जिसे ताउम्र
रोना होता है
पहाड़ जैसा जीवन
अकेले ही
ढोना होता है ।
(यह कविता तो नहीं है मगर सत्य पर मचली निज संवेदना जरूर है)
लड़की नहाना चाहती है

वैसी ही बारिश है
जैसी थी
बचपन के दिनों में
आज फिर
नहाना चाहती है
वह झूम कर
जैसे नहाई थी कभी
अपने आंगन में !
लड़की तब भी
अकेली थी
आज भी अकेली है
तब नहा ली थी
बिना सोचे
आज ठिठक कर
सोचना पड़ रहा है
रोक रहे हैं
धवल वस्त्र
टूट चुका
अटूट बंधन
पराया सा
अपना आंगन !
वही लड़की
नहाने लगी है
आंगन को छोड़
बंद कमरे में
आंखे से बरसती
स्मृतियों की बारिश में !
*स्त्री के कुछ सवाल*
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1.
क्यों नहीं होती
इस बात पर
चर्चा सर्वत्र
हर युग में
स्त्री को ही
क्यों देना पड़ता है
चरित्र प्रमाण-पत्र !
2.
पति की मृत्यु पर
स्त्री से ही
क्यों छीने जाते हैं
पति के प्रतीक
गले से मंगलसूत्र
हाथ से कंगन
माथे से बिन्दिया
मांग से सिन्दूर
पत्नी की मृत्यु पर
क्यों नहीं छीना जाता
पति से कुछ भी ?
3.
पति की मृत्यु के बाद
स्त्री क्यों नहीं रहती
प्यार की अधिकारिणीं
क्यों मान लिया जाता है
उसका सब कुछ
उजडा हुआ
जबकि उसका जीवन शेष
पडा रहता है अशेष !
4.
नाकाम पुरुष
नाकाम पुरुष को
क्यों कह देते हैं
पहन लो चूडियां
इस तरह
बेशर्मी के साथ
अपनी कमजोरी को
क्यों कर दी जाती है
स्त्री के नाम ?
5.
सात फेरों के बदले
क्यों समर्पित हो
पुरुष के समक्ष
गेह से देह तक
स्त्री का सब कुछ ?
रविवार, जुलाई 21, 2013
शनिवार, जुलाई 20, 2013
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