सोमवार, मार्च 28, 2011

76 सूं 95 डांखळा

[७६]
हिलमिल होळी खेली      ऊंदरां दिखायो हेत ।
फ़ूल तोड़ ल्याया लाल-लाल जद गया खेत ।
                    रगड़ बणायो रंग
                     सागै    घोटी भंग
मिनकी रै डर सूं पीग्या भांग   रंग समेत ॥

[७७]
सिर हो मोटो पण   पतळी ही कड़तू ।
ब्या होयो नीं अर कुंआरो रै’ग्यो पड़तू।
           बुडापै में लाग्यो नाको
           बोल्यो ऊंचो कर बाको
देखता रै’ईयो अब बांध देस्यूं भड़तू ॥

[७८]
नरेगा रै कारड़ में चिपकावणी ही फ़ोटू !
मोटी जोडा़यत साथै कोड में बैठ्यो कोटू ।
           फ़ोटोग्राफ़र गिण्या तीन
           कैमरै में आयो नीं सीन
बो बोल्यो बाबै नै भेज तूं उठज्या छोटू ॥

[७९]
रीसां में बोल्यो ऐक दिन खेमलो खिलाडी़ ।
दारू पीवण नीं देवै रांड आयगी अनाडी़ ।
                    गया नीं    होटल
                    खोली नीं बोतल
इयां तो भूखा ई मरजासी बापडा़ कबाडी ॥

[८०]
ऊंदरै भेज्यो ऊंदरी नै        ऐक दिन ई मेल ।
धरती माथै तो है कोनी थारै जिसी फ़िमेल ।
                    ऊंदरी बोली     रुक
                     पै’ली देख फ़ेसबुक
बठै लाधसी  लाडी म्हारै जिसी रेल री रेल ॥

[८१]
ऊंदरी बोली कार ल्याओ चढूं कोनीं बस में ।
जी घुटै म्हारो     भीड़-भाड़ अर भारी रस में ।
            ऊंदरो बोल्यो धिक्कै कोनीं
             तूं म्हारै अब टिक्कै कोनीं
थारै जिसी तो होवणी चाईजै     सरकस में ॥

[८२]
ऊंदरी ही पेट सूं डागधर जी करी सोनोग्राफ़ी ।
पेट में दिख्या बच्चिया अणगिणत अर काफ़ी ।
                       करो ना रीस
                      लेऊं नीं फ़ीस
म्हारै कोनीं इत्ता पालणियां    म्हनै देवो माफ़ी ॥

[८३]
देखो जमानै में फ़ैसन      बदळ्या है दस्तूर ।
ऊंदरी बोली ऊंदरै सूं     आपणो काईं कसूर ।
                 देखो टींगर-टींगरी
                  फ़ैसन में फ़ींगरी
हाथै फ़ाड़-फ़ाड़ पै’रै आपरा पै’रण आळा पूर ॥

[८४]
ऊंदरो बोल्यो ऊंदरी सूं      सुणै है काईं स्याणी ।
आज तो लड़ मरिया आपणां सेठ अर सेठाणी ॥
                      बात कोनीं छोटी
                        पकै कोनी रोटी
ऊंदरी बोली डरो ना होटल सू आसी रासण पाणी ॥

[८५]
ऊंदरी जाम्यो ऊंदरो  ऐक सकल मिलै बिल्ली सूं ।
काईं बतावै दाई ऊंदरै रो फ़ोन आयो दिल्ली सूं ।
                  सतगुरू तेरी ओट है
                  ऊंदरी में तो खोट है
लाई ऊंदरो कींयां बचसी जग में उडती खिल्ली सूं ॥

[८६]
खेमलै रै जंचगी      खेलण सारू होळी ।
दिनूगै उठतां ई खा ली भांग री गोळी ।
            नसै में पडी़ नी ठा
              लुगाई पै’रा दी ब्रा
फ़ेर घूम्यो सारै    दिन पै’र परो चोळी ॥

[८७]
गैर रमण सारू निकळ्यो नंगियो नंग ।
गाबा खोल टाबरां करियो नंग धड़ंग ।
            आई जणां लाज
            धोरै चढ्यो भाज
फ़ेर बजायो बण आंख मींच’र चंग ॥

[८८]
ऐसकै भड़तू खेली होळी बडी़ तेज ।
कोड-कोड में बण रंग दियो अंगरेज ।
        थे तो करियो तंग
       म्हे गेरां खाली रंग
रंगीज जा नीं तो बणा लेस्यूं मिसेज ॥

[८९]
खड़कू खोडि़यै री भू भी खोड़ली ।
सुसरै नै रंगण लारै-लारै दौड़ली ।
          बूढियै नै पटक
         रंग दियो चटक
रीसां बळती सासूडी़ चूडी़ फ़ोडली ॥

[९०]
दारू रै नसै में     भुणियों बेगो आयो घरां ।
बोल्यो- आज तो      किणीं सूं ई नीं डरां ।
               दीखी जद लुगाई
               पाछी दौड़ लगाई
बोल्यो आज फ़ेर मरस्यां जियां रोज मरां ॥

[९१]
भांग रै नसै में हो भूंड मल भंडार ।
लुगाई घरां ल्याई पालणियों मंडा’र ।
      म्हारै साथै खेलो होळी
     बोल्यो,ना ऐ नार भोळी
थांनै रंगां तो कूटै बा म्हारली रंडार ॥

[९२]
ऊंदरां मिल विचारी होळी रमण री ।
मिनकी तकाई बां हलवाई झमण री ।
         देखी बीं री आंख लाल
          हाथ सूं छूटगी गुलाल
फ़ेर तो खबर ई आई ऊंदरा गमण री ॥

[९३]
होळी खेळण री ऊंदरां रै आई दिल में ।
खेलां तो खेलां    मिल’र अबकै बिल में ।
            ल्याया पिचकारी
              मार’र टिचकारी
बोल्या-दारू भी तो ल्याओ महफ़िल में ॥

[९४]
गुड़गांवै री ऊंदरी अर ऊंदर हो दिल्ली रो ।
शेर नै मारता    पण डर तो हो बिल्ली रो ।
            ऊंदरी बोली होळी है
            मिनकी पूरी धोळी है
रंगो तो ठाह लागै आज      शेखेचिल्ली रो ॥

[९५]
आओ बेलियो छोडो सगळी राम्पारोळी ।
भेळा होय आपां सगळा मनावां होळी ।
              कविडो़ तो नटग्यो
              खड़्यै पगां अंटग्यो
बोल्यो-पै’ली बताओ कुणसो देस्सी न्योळी ॥

इण सूं पैली रा डांखळा बांचण खातर अठै माउस मचकाओ

शनिवार, मार्च 26, 2011

मेरी एक हिन्दी कविता

*** मुझे लड़ना है ***


अंधेरो से
लड़ना चाहता हूं
मगर दिखता नहीँ
कोई साफ साफ अक्स
इस कलमस मेँ
सब के सब
धुआंए हैं
स्याह धुएं मेँ ।


चौतरफ़ा यह धुआं
आया कहां से
नहीँ बताया
धुआंए चेहरोँ ने
और धुआंने को आतुर
दूसरे लोगोँ ने !


कुछ लोग
कुछ लोगोँ का
जला रहे हैँ दिल
सुलगा रहे हैँ ज़मीर
कुछ लोग
बस केवल
हवा दे रहे हैँ
या फिर झोँक रहे हैँ
अपना ईमान !


कुछ लोग
मुठ्ठियां भीँच रहे हैँ
दूर खड़े
दूर ही खड़े
कुछ और लोग
दांत पीस रहे हैँ
मुठ्ठियां भीँचने वालोँ पर !


कुछ लोगोँ ने
खोल दी हैँ मुठ्ठियां
और
सुस्त चाल चलते
कर रहे हैँ
उनका या समय का
मौन अनुकरण !


मुझे तो अभी लड़ना है
पहले खुद से
अंधेरोँ से
और फिर उनसे
जिनका आभामंडल है
यह स्याह अंधेरा !


.

रविवार, मार्च 13, 2011

म्हारी दोय राजस्थानी कवितावां

आओ आपां बात करां

=================

आओ !
आपां बात करां
छोटै-छोटै मुंडां
बडी-बडी
बात करां !


ऐकर फ़ेरूं
गोरधन नै
चिटूली माथै ऊंचां
किरसन नै उडीक्यां बिन्यां
कंसां नै मारां !
महाभारत सारू
त्यार खडी़
अपघात्यां री फ़ोजां नै
धूड़ चटावां !
आओ !
आपां बात करां
छोटै-छोटै मुंडां
बडी-बडी
बात करां !


सत्ता हथियावण
बेमेळ भेळा होयोडा़
भूपत्यां नै बकारां
सत्ता री दरोपती रो
चीर हरण होवण सूं पै’ली
लाज बचावां !
आओ !
आपां बात करां
छोटै-छोटै मुंडां
बडी-बडी
बात करां !


चौपड़ माथै
पास्सा फ़ैंकतै धरमराज नै
हारण सूं पै’ली उठावां
कौरवां नै समझावां
अर
पांडवां नै पांच गांव दिरावां !
आओ !
आपां बात करां
छोटै-छोटै मुंडां
बडी-बडी
बात करां !

============
आपां काईं करस्यां
===========


जद भैंरूं जी
सवामणी री परसादी
जीम’र भी
जे साध नी पूरी तो
आपां उण टैम काईं करस्यां ?


दारू रो
पूरो गेळण गटक
समूळो बकरियो भख
माताजी नी तूठ्या
अर
हड़मानजी री देवळी री
इक्कीस फ़ेरयां रै बाद भी
हड़मान बाबै
भूत नीं काढ्यो तो
आपां उण टैम काईं करस्यां ?


डोरा-मादळिया
अनै सात-सात झाडां रै बाद भी
मल्लू बरडा़वणो नीं छोड़्यो
देवळ्यां साम्हीं
झडू़लो उतारयां पछै भी
जे गोरियै
हकळावणों नीं छोड्यो
अर मंगळियै रै गोमदै
खोडा़वणो नी छोड्यो तो
आपां उण टैम काईं करस्यां ?


आपां रै साथै ई
देई-देवता
पित्तर-भोमियां
डाकण-स्याकण
डोरा-मादळिया
झाडा़-टूणां ई जे
आगलै सईकै पूगग्या तो
आपां उण टैम काईं करस्यां ?






.

शुक्रवार, मार्च 04, 2011

म्हारी ऐक राजस्थानी कविता















OOO ओ म्हारो गांव है OOO
          ओम पुरोहित " कागद "


ओज्यूं पींपळ री छांव है
मघली-जगली नांव है
बूक हथाळ्यां ठांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


जद दिन बिसूंजै
जगै दीया
चांद रै चानणै
टींगर खेलै दडी़ गेडिया ।
बिजळी रै खम्बां
भैंस बंधै
तारां री बणै तण्यां
बिजळी रो खाली नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


करसां बोवै
साऊ खावै
बापू रै नारां रो
गांव में खाली नांव है
बिजळी कड़कै
ठंड पडै़ करसां खसै खेत में
खातां में ज़मींदार रो नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


अंगूठां री नीं सूकी स्याई
मघली जाई
जगली परणाई
मा गैणां रख रिपिया ल्याई
साऊकार री बै’यां में
म्हारी सगळी पीढी रो नांव है
गांव सगळो पड्यो अडाणै
बैंकां रो खाली नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


क-मानै करज़ो
ख-खेतां खसणो
ग=गरीबी
घ-घरहीण
इस्सी बरखडी़
गांव री चौपाळ है
पांच सूं पच्चीस रा टींगर
खेतां-रो’यां चरावै लरडी़
माठर फ़िरै सै’र में
गांव में स्कूल रो खाली नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


अणखावणां-अणभावणां
बणै नेता बोटां रै ताण
ठग ठाकर है म्हारा
गेडी रै ताण
अडाणै री कहाणी कै
खेत दबाणै री बाणी दै
घेंटी मोस बोट नखावै
जीत परा फ़ेर ढोल बजावै
लोकराज रो खाली नांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !


अंटी ढील्ली
खेत पाधरो
अंटी काठी
खेत धोरां पर
अळगो-आंतरो
मंतरी री सुपारसां
खेत मिलै सांतरो
खेत-खतोन्यां
हक-हकूकतां
ज़मींदार रै हाथ में
गांव बापडो़ फ़िरै गूंग में
चारूं कूंटां पटवारी रो दांव है
हां जी, ओ म्हारो गांव है !








सोमवार, फ़रवरी 28, 2011

*** गांव के दो चित्र ***

*** गांव के दो चित्र ***
       [ दो कविताएं ]











** गांव में **
===========

तीन साल पहले
समाचार-पत्र में
समाचार था ;
गांव में पानी की तंगी
दूर होगी
बनेगी पानी की टंकी ।

अभी दस दिन पहले
समाचार-पत्र में
फ़िर समाचार था ;
पानी की टंकी में रिसाव है
इसे गिराने में ही बचाव है ।

आज फ़िर समाचार है
पानी की टंकी गिरा दी गई
यूं जनता बचा ली गई ।

यह अलग बात है कि
गांव में
किसी ने
समाचार-पत्र आने के सिवाय
कोई घटना
कभी भी नहीं देखी
प्रेस-नोट सरकारी थे
इस लिए विश्वसनीय थे ।


** अकाल में गांव **
================

गांव में
चार साल से अकाल था
फ़ेमिन था
फ़ेमिन में
काम के बदले
अनाज मिलता था
जिस्म के बदले
और जिस्म में
जान नहीं थी
बिरखा के लिए
अलूणे रविवार
निर्जला सोमवार के
व्रतों के कारण ।

गांव की दीवारों पर
नारा था-
पानी बचाओ !
बिजली बचाओ !!
सबको पढा़ओ !!!
यह अलग बात है कि
गांव में
न पानी था
न बिजली थी
न स्कूल था !

गांव में
न धंधा था
न खेती थी
न उद्योग था ।
प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत
शहर से सड़क ज़रूर आ गई थी
जो ले गई
शहर में
आदमी कम
सौदागर बहुत थे
यूं तो शहर में
"काम" बहुत था
और आदमी का
आदमी बने रहना
बहुत मुश्किल था
लौटना पडा़
उसी गांव में
जो अंधी सुरंग से
कभी कम न था !







शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

** मेरी दो हिन्दी कविताएं **

** मेरी दो हिन्दी कविताएं **

=====================
** गलियां **

कुछ गलियां
छोड़नी पड़ती हैं
कुछ आदमियों के कारण
और
कुछ गलियों में
जाना पड़ता है
कुछ आदमियों के कारण ।

गलियां
वहीं रहती हैं
वही रहती हैं
बदलते रहते हैं
आपसी सम्बन्ध
ठीक मौसम की तरह !

** रास्ता **

चलें
ऐसे रास्तों पर
जहां चल सकें
जूते पहन कर ।

अधिक से अधिक
ऐसा रास्ता भी
हो सकता है ठीक
जहां चल सकें
जूती हाथ में थाम कर ।

भला कैसे हो सकता है
वह रास्ता
जहां चलना पडे़
सिर पर उठा कर
अपनी ही जूतियां !








.

शनिवार, फ़रवरी 12, 2011

कुछ हिन्दी कविताएं

सात हिन्दी कविताएं

[1] आग

जब
जंगल में
लगती है आग
तब
केवल घास
या
पेड़ पौधे ही नहीं
जीव-जन्तु भी जलते हैं
अब भी वक्त है
समझ लो
जंगल के सहारे
जीव-जन्तु ही नहीं
आदमी भी पलते हैं ।

[2] याद

यादें ज़िन्दा हैं तो
ज़िन्दा है आदमी
जब जब भी
यादें मरती हैं
मर जाता है आदमी !

भुलाना आसान नहीं ;
षड़यंत्र है
जिसे रचता है
खुद अपना ही ।
भुलाना शरारत है
और
याद रखना है इबादत ।
भुलाना भी
याद रखना है
अपने ही किस्म का ।

कुछ लोग
कर लेते हैं
कभी-कभी
ऐसे भी
जानबूझ कर
भूल जाते हैं
लेकिन नहीं हैं
ऐसे शब्द
मेरे शब्दकोश में ।

[3]  खत

जब खत न हो
गत क्या जानें
गत-विगत सब
खत-ओ-किताबत में
खतावर क्या जानें
नक्श जो
छाया से उभरे
उन से
कोई बतियाए कैसे
बतिया भी ले
उत्तर पाए कैसे ?

बिन दीवारों के
छत रुकती नहीं
फ़िर हवा में मकाम
कोई बनाए कैसे ?

नाम ले कर
पुकार भी ले
वे सुनें क्योंकर
लोहारगरों की बस्ती में
जो बसा करे !

[4] सबब

धूप की तपिश
बारिश का सबब
बारिश की उमस
सृजन की ललक
सृजन की ललक
तुष्टि का सबाब
यानी
हर क्षण
हर पल
विस्तार लेता अदृश्य सबब !

सबब है कोई
हमारे बीच भी
जो संवाद का
हर बार बनता है सेतु ।
मेरी समझ से
कत्तई बाहर है
कि मैं किसे तलाशूं
संज्ञाओं को
विशेष्णों को
कर्त्ताओं को
या फ़िर
संवाद के सबब
किन्हीं तन्तुओं को
या कि सबब को ही !

[5]  कब

कलि खिलती है तो
फ़ूल बन जाती है
फ़ूल खिलते हैं तो
भंवरे गुनगुनाते हैं

धूप खिलती है तो
चेहरे तमतमाते हैं
चेहरे खिलते हैं तो
सब मुस्कुराते हैं
यूं सब मुस्कुराते हैं तो
सब खिलखिलाते हैं \

यहां जमाना हो गया
कब खिलखिलाते हैं ?

[6]  चेहरा मत छुपाइए

हर आहत को
मिले राहत
ऐसा कदम उठाइए
खुशियां हों
हर मंजिल
ऐसी मंजिल चाहिए ।

हो कठिन
अगर डगर
खुद बढ़ कर
कंवल पुष्प खिलाइए ।

चेहरे पढ़ कर भी
मिल जाती है राहत
खुदा के वास्ते
चेहरा मत छुपाइए !

[ 7] मन निर्मल

न जगें
न सोएं
बस
आपके कांधे पर
सिर रख कर
आ रोएं !

पहलू में आपके
सोना
रोना
थाम ले मन
बह ले
अविरल
दिल का दर्द
आंख से
आंसू बन कर ।
हो ले मन निर्मल
औस धुले
तरू पल्लव सरीखा ।

कितना ज़रूरी है
तलाशूं पहले तुम्हें
तुम जो अभी
अनाम-अज्ञात
हो लेकिन
कहीं न कहीं
बस मेरे लिए
मेरी ही प्रतिक्षा में !

यही प्रतिक्षा
जगाती है हमें
देर रात तक
शायद हो जाएगी
खत्म कभी तो
कहता है
सपनों में
हर रात कोई !








रविवार, फ़रवरी 06, 2011

गज़ल















क्या पढे़गा भला कोई \

आंखों से एक सपना खो कर आया हूं ।
अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥

कांधे पर मेरे हाथ मत रख ऐ रकीब ।
यह लाश बडी़ दूर से ढो कर लाया हूं


न मांग मुझ से मेरी तन्हाईयां इस कदर।
मैं इन्हें अपना सब कुछ खो कर लायाहूं॥


क्या पढे़गा भला कोई इतिहास अब मेरा ।
मैं वो पृष्ठ स्याही में डुबो कर आया हूं ॥


न रुला अब किसी और अंजाम के लिए ।
अपने जनाज़े पर बहुत रो कर आया हूं ॥


निरी प्यास है इन में न कर तलाश पानी ।
मैं इन आंखों में अभी हो कर आया हूं ॥









गज़ल






शुक्रवार, जनवरी 28, 2011

ओम पुरोहित ‘कागद’


 मेरे हिन्दी कविता-संग्रह

म्हारा राजस्थानी कविता-संग्रह
              कुचरणी
राजस्थानी कविता-संग्रहों से 
हिंदी मे अनूदित कविताएँ
अन्य हिंदी कविताएँ
राजस्थानी कविताओं का हिंदी अनुवाद
मूल राजस्थानी कविताएँ

शनिवार, जनवरी 22, 2011

ओम पुरोहित"कागद" चार हिन्दी कविताएं

चार हिन्दी कविताएं


* द्वंद्व *

जब तलक
वर्ण छितरे रहे
न बटोर सके
मूरत अमूरत संवेदनाएं !

जब से लगे हैँ बनाने
अपने अपने समूह
उतर आए उनमेँ
दृश्य-अदृश्य-सदृश्य
आकार-निराकार
उभरने-झलकने लगे
सुख-दुख-मनोरथ
आकांक्षाएं-लालसाएं
द्वंद्व-युद्द
अकारण सकारण सकल !


समवेतालाप
और एकालाप के
वशीभूत हो
मुखरित होने के
अपने संकट हैँ
रोना ही तो है यह
सब के बीच अकेले मेँ !

* सम्बन्ध *

टूट कर
अलग हो जाए पत्ता
मगर
एहसास रहता है
शेष शाख पर
सम्बन्धोँ के
अतीत होने का !


थे जो कभी
साकार मुखर
आज निराकार
धार असीम मौन
स्मृतियोँ मेँ
फिर फिर से
लेते हैँ आकार
बतियाऊं कैसे
स्मृतियोँ के एहसास से !


सम्बन्ध नि:शब्द जन्मे
नि:शब्द रहे
नि:शब्द ही
कर गए प्रयाण
अर्थाऊं कैसे
असीम मौन औढ़ कर !


* फासले *

कदम हम चार चले
सामने तुम्हारे
तुम भी चले
कदम चार
मगर
अपने ही पीछे !
यूं न कभी
अंत हुआ सफर का
न फासले ही कम हुए !


आहटोँ पर
कान लगाए
चलते रहे
चलते रहे
न बतियाए
किसी पल
सफर के बीच
पड़ाव तलक
न आया जो कभी !


बस
परस्पर मुस्कुराहटेँ
ढोती रहीँ
अनाम सम्बन्धोँ को
हमारे बीच
अनवरत !

* काण *

रात भर
बात बेबात
जागने वालोँ को
क्या और क्योँ
अलग से विशेषण दूं
दोस्त कह दूं तो भी
तराजू के पलड़ोँ मेँ
काण तो दिख ही जाएगी !

तुम कहो तो
तुम्हेँ "मैँ" कह दूं !