शुक्रवार, जून 21, 2013

. मन का मैल

तुम्हें हर वक्त
चिंता रहती है
दूसरों के मन के मैल की
अपने मन में कभी 
झांकते ही नहीं तुम
जहां मैल का
अथाह सागर 
हिलोरें मारता है
बह बह जाता है
दूसरों के मनों तक ।

दूसरों के मनों में
दिकता मैल
तुम्हारे मन के मैल का
अंशी ही तो है
अपना मन निर्मल कर
फिर दिखेंगे तुम्हें
चहूं ओर निर्मल मन !

कन्या बचाओ

क्या कोई हुक्मरान
आगे आ कर बताएगा
क्यूं कोई
इस दिन के लिए
कन्या बचाएगा ?

हालात यही रहे तो 
कल यही समाज
कन्या बचाओ की जगह
कन्या बताओ का
नारा लगाता दिखेगा
तब तक यकीनन
कन्या प्रजाति
भारत भूर से
लुप्त हो जाएगी
!

सावन की बरखा

सावन की बरखा पड़ी,लगी झड़ी दिन रैन ।
साजन बिन कहो बदरिया,किस विद आवै चैन ।1।
साजन बसेँ दूर देश मेँ,गये राज के काम । 
काम काम मेँ उधर जलेँ, इधर काम तमाम ।2।
सावन जलाए बदन को, बरखा लेती प्राण ।
साजन बिन अब सांवरा, पाएं कैसे त्राण ।3।
बूंद बूंद पानी पड़े, तन मेँ लागे आग ।
पिव वाणी के सामने,कड़वी कोयल राग ।4।
मिल कर झूला झूलती, पिव होते जो संग ।
बिन पिया तो ये सावन, करता कितना तंग ।5।

* तस्वीर *


तस्वीर बनाई मैँनेँ
रंग कोई और भर गया ;
चेहरे पर काला
बालों पर मटमैला
पैरों मेँ नीला
और हाथोँ मेँ भगवां !

मैँ
अपनी ही बनाई
उस तस्वीर से डर गया !

*मैँने लिखा*

मैँनेँ बारिश लिखा;
सागर उथल गए
मैँन फूल लिखा
मुरझा गया
अगली भोर
मैँने लिखा तितली;
वह भी उड़ गई-फुर्र
मैंने छांव लिखी;
धूप नाराज हुई
मैँने आकाश लिखा;
बादल लरज गए
मैँने सूरज लिखा ;
धरती तड़प गई !
भय पसरा था
कायनात मेँ
चहूंदिश !
फिर मैँने
होले से लिखा
पहाड़
जो रहा
अडिग-अटल
जिस से टकरा कर
लौट आती है
मेरी आवाज
मेरे तलक
कुछ कुछ लरजती सी! 

*मेरे आंगन उतरेगा सूरज*

आज फिर निकला
शरद का चांद 
मेरी छत पर
चांदनी में नहा गया 
आज फिर मेरा आंगन !

घर की दीवारेँ
कांपने लगीं
आज फिर दौड़ कर 
गया मैं छत पर
ढांपने खुली छत
चांद मुस्कुराया
लगा गिर ही जाएगा
बीच आंगन आज !

कांपती रूह
लरज़ते जिस्म
उतर ही आया
कल के सूरज को
अपने आंगन
उतरने का रास्ता दे !

दूर गगन में
टिमटिमाते तारे
हंसने लगे
उन्मुक्त हंसी
मानों खिलाखिला रहे हों
मासूम बच्चे
मदारी के आगे
नाचते नंगे बंदर को
देख कर बेबस !

सूरज भी आएगा
उसी मारग
जिस मारग आ
चांद भर देता है
रगों तक में ठंडापन
उन्हीं रगों मेँ कल
भर देगा आग
जब उतरेगा कल
सूरज मेरे आंगन !

*मौसम बदल गया*

आज अचानक 
घर की मुंडेर से
आंगन में झांका सूरज ने
अलसाई भोर सिहर गई
ले कर अंगड़ाई 
उठ चल पड़ा 
नीरस दिन 
छत मेँ सहतीर के 
कोटर में दुबकी चिड़िया
पंख फड़फड़ा उड़ गई
मुक्त गगन में
कांपती रूह थम गई
मां के हाथों
मीठी गुड़ वाली
चाय थाम कर
तब जाना
मौसम बदल गया ।

मौसम का बदलना
जीवन का बदलना ही तो है
तभी तो
बदल जाती हैं
इच्छाएं-आशाएं
आकांक्षाएं-आवश्यकताएं
रोजमर्रा की ।

सर्द रात मेँ
गर्म आगोश
कहां रहती है
केवल बच्चों की चाहत
प्रोढ़ तन मन
लौटना चाहता है
अपने अतीत मेँ
मिलती नही
गर्म गोद मां की
मां की याद
बदलते मौसम की
दे ही जाती है संकेत !

*मन के साथ*


हम चल पड़े थे
आकाश में 
निकालने सुराख 
बीच रास्ते
लॉट आए
जब बढ़ती गईं दूरियां
धरती ओ आकाश के बीच
ऊपर उठते तो
न लौट पाने का था डर
डर तो ये भी था
कि लौटने बाद
शायद न मिले धरती भी।

हम लौट ही आए
अपने भीतर
जहां बैठा है
हमारा कातर मन ।
हमें बहुत कहा गया
मारो मन को
हम से नहीं मरा
और फिर
मारें भी क्यों मन को
जो दे देता है रस
भयावह नीरसता में भी
ले जाता है पार
यंत्रणाओं के पार
जो घड़ी गई हैं
इस नश्वर जगत में
केवल हमारे लिए
इस लिए
हम जी लेते हैं
मन के साथ ।

[]गांधी जी के तीन बंदर[]

*आज पढ़ो मेरी एक बाल कविता *



गांधी जी के तीन बंदर ।
रहते थे वो उनके अंदर।

बुरा किसी को कहा नहीं ।
बुरा किसी का सुना नहीं ।
बुरा किसी का सहा नहीं ।
सदा वो रहते मस्तकलंदर।
गांधी जी के तीन बंदर ।।

बुरे न बोले बोले कभी ।
जो बोले सो तोल सभी।
दिल की बातें खोल सभी।
प्रेम भाव के भरे समंदर ।
गांधी जी के तीन बंदर ।।

बुरा न देखा कभी किसी का ।
बुरा न समझा कभी किसी का ।
बुरा न सोचा कभी किसी का ।
राम रहीमा के पैगम्बर ।
गांधी जी के तीन बंदर ।।

*सपना टूट गया*

रात छोटी थी
सपना था बड़ा
रात बीत गई
सपना टूट गया
टूटा सपना
फिर नहीं जुड़ा
ठीक वहीं से
जहां से टूट था
पहली रात के अंतिम पहर!

फिर नहीं आए
वे पात्र
जो थे साथ रात भर
उस सपने वाली रात में ।

वे दर और दीवार भी
नहीं आए लौट कर
जिन में रच दिया था
हम ने इतिहास
उस पहली रात ।

उस रुपहली रात में
कितना रोशन था
दूधिया चांद
बिखेरता मधुरस !

आज फिर जुटी
जुड़ी रात मेँ
कितना अलसाया सा है
बूढ़ी अम्मा के मुख सा
बेचारगी ओढ़े चांद !

अब तो
सपनों वाली
उस पहली रात के
सपने भी दूभर हैं
अब रातें बड़ी हैं
सपने बहुत छोटे
छोटे छोटे सपने
नींद तोड़ते हैं
रात नहीं
रात पड़ी रहती है शेष
अजगर सी पसरी
लिपटती हुई
हमारे इर्द गिर्द !

*कविता जरूर लिखना*


उस ने 
जाते जाते कहा था
मेरे लिए जरूर लिखना
एक कविता
जिस में हो प्रीत
गीत हरियाली के ।

सपने मत लिखना
जो न हो सकें पूरे
मेरे वाली कविता में
खुशहाली लिख देना
बिल्कुल सच वाली
जो दिखे दूर से
सभी के चेहरों पर
सूरज सी चमकती !

मेरे घर के सामने
लिख देना चौराहा
जिस पर कभी न लगें
धरना-पोस्टर
खड़ा कर ही देना
चाहे उस पर
बिना जेब वाला
टैफ्रिक का सिपाही !

संसद लिखो तो
लिखना बोलने वाली
बोल कर तोलने वाली
जिस में दिख जाए
मेरा पूरा गांव
उस तक जाती
सड़क जरूर लिखना !

मल्टीनेशनल कम्पनियां
पिज्जा-बर्गर-स्लाइस
चाहे कुछ भी लिख देना
मगर मेरे नत्थू के
तन भर कपड़ा
एक छत
दो जून रोटी
जरूर लिख देना
उसकी हारी-बीमारी टले
इसके लिए
दवा और दवाखान भी
लिख ही देना
उस मजदूरिन जापायत गोमती के लिए
तीन महीने का
प्रसूती अवकाश भी
जरूर जरूर लिख देना !

फोज बैरकों में
बच्चे स्कूल में


युवा खेल में
अफसर ऑफिसों में
सत्य-ईमान मस्तिष्कों मेँ
नेताओं में देश प्रेम
इस बार जरूर लिखना !

अम्मां के लिए
आंख न सही
एक ऐनक जरूर लिखना
बेटों का प्यार भी
लिख ही देना
खींच खांच कर इस बार !

मैं लौटूं तब तक
फसल भी उगाते रहना
फलदार प्रीत की
जिसके बिरवे फैल जाएं
समूची धरा पर
मेरे घर के आगे से !

[>0<] दोस्त [>0<]

बनाए नहीं जाते
खुद दोस्त
दोस्त तो
खुदा भेजता है
हर शख्स को मगर
जुदा भेजता है !

कूष्ण को सुदामा
राम को हनुमान
सकल जगत को
रहीम-रहमान
महावीर-ईसा
बुद्धा भेजता है ।

दोस्ती तोड़ना
खुदा की ही
नाफरमानी है
अभी समझ लो
दोस्तों के दोस्तो
ये इरादे शैतानी हैं

<> मेरी ज़िन्दगी <>

मुझे
मेरी ज़िन्दगी का
कभी साथ नहीं मिला
जब-जब भी
हम दोनों 
पास-पास आए
ज़िन्दगी ने ही खुद
रुख पलट लिया
किसी और की तरफ
मैं तो आजतलक
बस हाथ ही मलता रहा !

बदलते परिदृश्य
बनते घटनाक्रम में
हाथ तो कोई न था
किसी किसी ने कहा
यह प्रारब्ध है मेरा
किसी ने नहीं माना
मैं कहता रहा ;
तो फिर मैं कहां था
बनते प्रारब्ध के वक्त ।

किसी ने कहा
समय की बात है
मैंने कहा
समय तो सब के लिए
समान रूप से चलता है
सतत्‌ सांझा
फिर मेरा समय
विभक्त हो
मेरे लिए पृथक से
आवंटित हो गया ?

मैंने कहा
बहुत लोग
पा जाते हैं वांछित
मेरी वांछना
मेरे ही भीतर
क्यों तोड़ देती है दम ?

जरूर मैं बुद्धू ही हूं
तभी तो मेरे प्रिय शब्द
मेरे ही मुख से हो मुक्त
अन्य के आगोश में
जा बैठते हैं
फिर वे खेलते हैं
खेलते ही रहते हैं
मेरे ही शब्दोँ से
अपने मन वांछित खेल !

रेत की पीर

दिन भर
तपती रेत
खूब रोती होगी
रात के सन्नाटे में
बुक्का फाड़
तभी तो
हो लेती है
भोर में
शीतल
शांत
धीर
रेत की
अनकथ पीर !

इस दीपावली

सुन लक्ष्मी ! 
इस दीपावली
धनपतियों-बाहूबलियों
नेताओं-कॉर्पोरेट को छोड
एक कनस्तर आटा
पुड़िया भर
नमक-मिर्च संग
लक्कड़-बळीता छाणा ले
नत्थू की टूटी छानड़ी आ !

कर्ज जुटाती
टैक्स कमाती सरकारें
घाटे का छोड़े राग
जनसेवा को मानें लाभ
मोह छोड़े व्यपार का
यह दीपावली यूं मने
लोक कल्याणकारी बनें
चुनी हुई सरकार !

इस दीपावली
कुछ ऐसा कर लक्ष्मी
कि कहीं न हो घोटाला
न आंवटन न गड़बड़झाला
जनता का लूट खजाना
न हो कांडवती सरकार
न आतंक हो
न गरीबी
न हो भ्रष्टाचार
फिर मनाएं हम दिवाली
दे दे ताली !

सत्संग

बेरुखी भी आपकी अदा होती है ।
रोज नहीं मगर यदा कदा होती है ।।
बातें उधर होंगी नशीली यकीनन ।
उनकी बातें तो मयकदा होती हैं ।।
चांद के होने पर होती है पूनम ।
उनके चेहरे पर सर्वदा होती है ।।
उनके हुस्न का चर्चा सुन चकराए आप ।
हमारे यहां सत्संग सदा होती है ।।
उनके आने पर खिल जाएं है चेहरे ।
छुपने पर बस्तियां ग़मज़दा होती हैं ।।

समय के साथ

समय को साधने
हम ही देते हैं 
विशेषण अच्छे-बुरे 
सच तो यह भी है
समय को
अच्छा या बुरा
हम ही बनाते हैं !

समय के साथ-साथ
चलते हुए
हांफ जाते हैं हम
जीत नहीं पाते
आखिर छोड़ कर
चले जाते हैं
समय को दुनिया में
जो भरता रहता है
साख हमारी ।

आप आओ तो

.
आप आओ तो बात होती है ।
आप जाओ तो बात होती है ।
आंखें मुंदी रहती हैं शब भर।
आप आओ तो रात होती है ।।
ज़हन में बसे रहते हो हरदम । 
चाहो तो मुलाकात होती है ।
बन्धे आप के दामन में आज़ाद ।
बस दूरी हवालात होती है।।
एक तुम न मिलो जीत लें दुनिया ।
वो जीत अपनी मात होती है ।

*सत्ता तेरी*

मेहनत में 
तन मेरा
उपज में 
धन तेरा ।

बोया मैंने
काटा तुम ने
आमद तेरी
घाटा मेरा ।

वोट मेरा
सत्ता तेरी
टैक्स तेरा
बजट मेरा ।

मैं मित्र
तुम बैरी
नफरत तेरी
प्रीत मेरी ।

सवाल मेरा
जवाब तेरा
सवाल तेरा
जवाब मेरा ।

*धरा दुहागिन*

न जाने किस ने
धरती को ओढ़ा दी
सफेद चादर
धरा लगने लगी
दुहागिन सी
इस मंजर को देख
छुप गए चांद-तारे
ले कर बादली रुमाल
किसी छोर सुबकने ।

आसमान रो रहा है
झुक कर धरती की ओर
गिर रहे है आंसू
बन ओस कण
भिगो रहे हैं
दामन धरा का
बिछ रही है संवेदना
धरा के जाए
घास-तरुवर पर
डाल-डाल पात-पात !

मौसम !
इस कदर तो
मत बदल
कि बदल जाए मंजर
इस कायनात का !